बुधवार, 29 सितंबर 2010

ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे - अहमद फ़राज़


ज़िन्दगी से यही गिला है , मुझे तू बहुत देर से मिला है मुझे.
हमसफ़र चाहिये हूज़ूम नहीं ,इक मुसाफ़िर भी काफ़िला है मुझे.
तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल, हार जाने का हौसला है मुझे.
लब कुशां हूं तो इस यकीन के ,साथ कत्ल होने का हौसला है मुझे.
दिल धडकता नहीं सुलगता है ,वो जो ख्वाहिश थी,आबला है मुझे..
कौन जाने कि चाहतो में फ़राज़ ,क्या गंवाया है क्या मिला है मुझे.

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

सबने मुझे टूटते हुए देखा।


सत्रह साल हो गए मुझे टूटे हुए, भरभराए हुए। इबादत की जगह को पैरों से रौदा गया। नफरत से तोड़ा गया। लेकिन क्या मैं अकेले टूटा हूं ? मैं इन सत्रह सालों में बार –बार यहीं सोचता रहा। मुझे लगता है कि मैं अकेले नहीं टूटा। इस ज़म्हूरी मुल्क की इज्ज़त टूटी। देश का ईमान टूटा। गंगा –जमुनी तहज़ीब टूटी। राम-रहीम की दोस्ती टूटी। एक –दूसरे का एतबार टूटा। रिश्तों की डोर टूटी। दिलों का तार टूटा। अब आप सोचिए क्या मैं अकेले टूटा था ?मुझे चाहें जिसने भी बनाया हो। जिस भावना से बनाया हो। लेकिन मुझे जगह तो मर्यादा पुरशोत्तम श्रीराम ने ही दी। मैं सैंकड़ों साल से उनके साथ रहा। वो भी मेरे साथ सैकड़ों साल से जुड़े रहा। उनके बगल में मेरे होने से उन्हे कोई तकलीफ नहीं हुई। मेरे साथ उनके होने से मुझे कोई तकलीफ नहीं हुई। मैं उनकी नज़रों से होली खेलता था। दीवाली के पटाखे फोड़ता था। नवरात्रा मनाता था। दशहरा मनाता था। मेरी नज़रों से वो ईद की मीठी सिवइयां खाते थे। हम दोनों को एक दूसरे से कोई तकलीफ नहीं थी।मुझे तोड़ने के लिए मुट्ठी भर लोगों ने देश में फतवा जारी किया। वो फतवा किसी मज़हब का नहीं था। किसी ईमान का नहीं था। किसी इंसान का नहीं था। ये फरमान राम का नहीं था। क्योंकि कोई भी मज़हब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना। ये तो सत्ता के लालची उन उन्मादियों का तुलग़की फ़रमान था, जिन्हे दीन ओ ईमान से कोई मतलब नहीं थी। उन्हे मतलब था तो हम दोनों के सहारे हुक़ूमत की चाबुक पाने से।मैं टूट रहा था। मुझ पर हमले हो रहे थे। मुझमें हिम्मत थी सब सहने की। मुझे सब सहना भी चाहिए था। ये मुल्क का तक़ाज़ा था। क्योंकि मैं भी इस देश की माटी से बना था। वतन का क़र्ज़ दूध के भी क़र्ज से बड़ा होता है। मैं सह रहा था । दर्द पड़ोसी को हो रहा था। मेरे राम को हो रहा था। वो दिल ही दिल रो रहे थे। सोच रहे थे कि हजारों साल पहले जंग कर जिस रावण का ख़ात्मा कर चुके थे, वो चेहरे फिर से दिखने लगे हैं। जिन्हे दूसरों को तकलीफ देख कर आनंद आता है। वो मुझसे शायद कह रहे थे- घबराना नहीं। टूटना नहीं। सब सहना है । सब सहकर फिर से मुल्क को मजबूत बनाना है। मज़हब की तालीम देनी है। चौपाइयों और दोहों से फिर समझाना हैं कि हमारे बदन का लहू एक जैसा हैं, एक रंग का है। इसलिए हम दोनों का ख़ून भी एक है। लेकिन लोग नहीं समझ रहे थे। रथ जहां –जहां से निकला था, अपने पीछे काला धुआ छोड गया था। इस गुबार में लोगों के ख़ून काले पड़ गए थे और आंखें लाल हो गई थीं। बहुत सी औरतें की चूड़ियां टूटीं। बहुत सी माओं का आंचल सूना हुआ। कई बच्चों के सिर से मां- बाप सका साया उठ गया। बहुत ख़ून बहा- हम दोनों के नाम पर। लेकिन हम दोनों ने तो ऐसा नहीं कहा था । फिर क्यों बहा ख़ून ? किसके लिए बहा ख़ून ? सबने मुझे टूटते हुए देखा। लेकिन क़ानून को देखने –समझने में सत्रह साल लग गए। सुना था मैंने इंसाफ में देर ज़रूर है, लेकिन मिलता ज़रूर है। सुना है कि क़ानून के हाथ बहुत लंबे होते हैं, हमसे भी लंबे। सत्रह साल बाद क़ानून को सब पता चल गया। किसने मुझे तोड़ा। क्यों मुझे तोड़ा। लेकिन क्या गुनाहगार सज़ा पाएंगे ? या फिर मेरे और राम के मज़हब में जो लिखा है, वहीं होगा। सबको ऊपर सज़ा मिलेगी। क्योंकि हमारे वार में आवाज़ नहीं होती। लेकिन जाते –जाते आपसे गुज़ारिश है। आप मत टूटना कभी । आप टूटेंगे तो मुल्क टूटेगा, ज़म्हूरी ताक़त टूटेगी, गंगा जमुनी तहज़ीब टूटेगी, मज़हब की तालीम टूटेगी। याद रखिएगा- ग़लतियां बाबर की थी, जम्मन का घर फिर क्यों जले। दफन है जो बात, उस बात को मत छेड़िए।

गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

नये साल की लख-लख बधाई..


सभी ब्लागरों को मेरी तरफ से नये साल की लख-लख बधाई.. आपका नया साल मंगलमय हो और आपके जीवन में खुशियों की बहार लेकर आये..मिलते हैं नये साल में..

शनिवार, 26 सितंबर 2009

मूर्ति


इस पाखंडी का चेहरा तो देखिए


य़े हैं अरुण शौरी। इन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से माँग की है कि वह भारतीय जनता पार्टी को ठीक करे। उनका कहना है कि पार्टी को वही ठीक कर सकता है। इसके लिए उन्होंने सुझाव ये दिया है कि ऊपर बैठे तमाम लोगों को हटाकर संघ खुद राज्यों से दस नेताओं को भेजे और उन्हें नेतृत्व सौंप दे।
अब ज़रा गौर कीजिए पत्रकार से नेता बने अरुण शौरी पर। ये शख्स लोकतांत्रिक होने का दावा करता है और अख़बारों में लंबे-लंबे, कई किस्तों वाले लेख लिखता है। मगर इसे इतना भी समझ में नहीं आता कि पार्टियों को लोकतांत्रिक ढंग से कैसे चलाया जाता है। पार्टी के अंदरूनी लोकतंत्र में उसकी कोई श्रद्धा नहीं है और वह एक ऐसे संगठन से उसे सुधारने के लिए गुहार लगा रहाहै जो खुद लोकतंत्र से कोसों दूर है। आरएसएस के बारे में सब जानते हैं कि उसकी विचारधारा क्या है और वह किस ढंग से काम करता है। उसमें कभी चुनाव नहीं होता और विचार-विमर्श की प्रक्रिया भी कतई लोकतांत्रिक नहीं है। वह एक संप्रदाय विशेष का संगठन है बस।
मगर अरुण शौरी को इससे क्या। वे तो खुद फासीवादी विचारों के पोषक हैं। उनका समूचा साहित्य मुस्लिम-विरोधी है। उनके लेखों और किताबों में देखा जा सकता है कि कैसे वे मुसलमानों और इसलाम को मानवता विरोधी-देश विरोधी साबित करने के लिए कुतर्क गढ़ते रहते हैं। अयोध्या विवाद के दौरान अपनी कलम से ज़हर फैलाने वाले अंग्रेज़ी के पत्रकारों में वे अग्रणी रहे हैं। मथुरा विवाद को हवा देने का काम भी वे अख़बार में करते नज़र आए थे। ये और बात है कि वे ये सब ऐसी नफासत से करते हैं कि नरेंद्र मोदी और उमा भारती जैसे नहीं दिखते। सधी हुई अँग्रेजी में उनकी सांप्रदायिकता काफी हद तक छिप जाती है। अब जबकि पार्टी में उनकी सुनने वाला कोई नहीं है तो वे संघ शरणं गच्छामि हो रहे हैं।
अरूण शौरी किसी ज़माने में पत्रकारों की पाँत में सबसे आगे बैठते थे। बोफोर्स काँड के दौरान भँडाफोड़ करने वालों के अगुआ बने हुए थे। लोगों को भ्रम हो गया था कि उनके जैसा दुस्साहसी और खोजी पत्रकार इस धरती पर कोई दूसरा नहीं है। मगर जानने वाले जानते थे कि ऊपर से पत्रकार का चोला धारण करने वाले अरूण शौरी दरअसल एक स्वयंसेवक है और अंदर निक्कर पहनते है। लेकिन उस समय माहौल राजीव गाँधी के ख़िलाफ़ था इसलिए किसी ने इसे तवज्जो नहीं दी। पोल तब खुली जब वे बाकायदा बीजेपी में शामिल हो गए। राज्यसभा के सदस्य हो गए और फिर वाजपेयी सरकार में मंत्री भी बन गए।
बीजेपी में आने के बाद से अरुण शौरी ज़्यादा संघी हो गए, क्योंकि अब छिपाने के लिेए कुछ नहीं बचा था। मगर लगभग एक दशक तक सक्रिय राजनीति में रहने के बाद भी उन्हें लोकतांत्रिक राजनीति का संस्कार नहीं मिला। वे लोकतांत्रिक पद्धति से चुने गए नेताओं को तानाशाह प्रवृत्ति वाले संघ के ज़रिए हटाना चाहते हैं। बीजेपी या राजनाथ सिंह की कंपनी से किसी की कोई हमदर्दी नहीं है और न ही कोई उन्हें बचाना चाहता है। हम तो एक पाखंडी पत्रकार का चेहरा दिखाना चाहते हैं बस।

इस सादगी पर कोई फिदा नहीं होगा


केंद्र सरकार कमखर्ची के नाम पर कर्मकाँड और पाखंड के रास्ते पर चल रही है। वह जो भी क़दम उठा रही है वे सिवाय छलावा के कुछ नहीं है। ये सब जानते हैं कि पहले भी इस तरह के टोटकों से सरकारी खर्च में कोई कमी नहीं आई है और ये ढोंग से ज़्यादा कुछ भी नहीं है। जल्दी ही लोगों को समझ में आने लगेगा कि सरकार की ये सादगी मुहिम दरअसल महँगी साबित होने वाली है। ठीक उसी तरह जैसे कहने को तो नेता खादी पहनते हैं, मगर कपड़ों को चकाचक सफेद और कड़क रखने के लिए आम कपड़ों से ज़्यादा खर्च कर डालते हैं। इसके अलावा इस अभियान के कुछ गुप्त लक्ष्य भी हैं।
ताज़ा मिसाल काँग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी की मुंबई और बैंगलोर यात्रा की ले लीजिए। सोनिया ने सादगी का संदेश देने के लिए हवाई जहाज़ की इकॉनामी क्लास में यात्रा ी जो तुलनात्मक रूप से कुछ सस्ती होती है। मगर उनकी ये यात्रा एक्जीक्यूटिव क्लास की यात्रा से भी महँगी साबित हुई क्योंकि सुविधा और सुरक्षा के लिए आसपास की कई सीटें खाली रखी गईं। बताते हैं कि यात्रियों को इससे सुविधा नहीं हुई, मगर यदि सारे मंत्री और ऐसा करने लगेंगे तो क्या हाल होगा समझा जा सकता है, ख़ास तौर पर उस मौसम में जब भीड़ ज्यादा होती है। बताया गया है कि राहुल गाँधी अब ट्रेन से यात्रा करेंगे। ज़ाहिर है कि उनकी यात्रा के दौरान भी यही होगा। मुमकिन है कि सुरक्षा का हवाला देते हुए पूरा डिब्बा ही रिज़र्व कर दिया जाए।
ये सही है कि मंत्रियों और जन प्रतिनिधियों के यात्रा का खर्च बहुत ज़्यादा होता है। मगर हवाई और रेल यात्राओं के स्तर में कटौती से कमखर्ची का बहुत कम वास्ता है। सरकार अगर सचमुच में खर्च कम करना चाहती तो वह कुछ और कड़े उपाय कर सकती थी। पर उसका उद्देश्य खर्चा कम करना नहीं, बल्कि ये दिखाना है कि वह खर्चे कम कर रही है। ये छवि निर्माण की कवायद है। भीषण सूखे से उपजी स्थिति से निपटने के बजाय वह सादगी की आड़ ढूँढ़ रही है।
इस समय सादगी का राग अलापने की एक बड़ी वजह ये भी है कि काले धन का सवाल भी ज़ोर-शोर से उठ रहा है। विदेशी बैंकों में जमा अकूत काला धन लाने के लिए सरकार किसी भी तरह से तत्पर नहीं दिख रही है। देश के अंदर मौजूद काला धन निकालने की भी कोई मंशा उसकी नज़र नहीं आती। हालाँकि जन-भक्षण(Public consumption) के लिए वीरप्पा मोइली और दूसरे नेता जब-तब बयानबाज़ी करते रहते हैं सरकार का इरादा अगर कुछ करने का होता तो वह इतना शोर न मचाती, वह कार्रवाई करती। मगर शोर मचाकर वह ऐसा माहौल बनाना चाहती है ताकि दूसरे सवाल पृष्ठभूमि में चले जाएं। ये सवाल काले धन के भी हैं और महँगाई, बेरोज़गारी और भुखमरी से जुड़े भी हैं।
सादगी के इस सार्वजनिक प्रदर्शन का उद्देश्य आगामी विधानसभा चुनाव भी हैं। महाराष्ट्र की ग्रामीण जनता राज्य सरकार के कामकाज से बेहद नाराज़ है। ख़ास तौर पर किसानों में उसके प्रति काफी गुस्सा है। इस गुस्से को ठंडा करने के लिए अगर सादगी के छींटे मारे जा रहे हों तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। ज़ाहिर सी बात है कि विधानसभा चुनाव के बाद सादगी की मुहिम ठंडी पड़ जाएगी। सादगी का ज्वार वैसे भी बहुत समय तक चलने वाला नहीं है। हमारे राजनीति संस्कृति के लिए अब ये एक अजनबी और असुविधाजनक चीज़ है और मंत्रिगण इसे मौसमी फ्लू की तरह ही झेल रहे होंगे।

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