य़े हैं अरुण शौरी। इन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से माँग की है कि वह भारतीय जनता पार्टी को ठीक करे। उनका कहना है कि पार्टी को वही ठीक कर सकता है। इसके लिए उन्होंने सुझाव ये दिया है कि ऊपर बैठे तमाम लोगों को हटाकर संघ खुद राज्यों से दस नेताओं को भेजे और उन्हें नेतृत्व सौंप दे।
अब ज़रा गौर कीजिए पत्रकार से नेता बने अरुण शौरी पर। ये शख्स लोकतांत्रिक होने का दावा करता है और अख़बारों में लंबे-लंबे, कई किस्तों वाले लेख लिखता है। मगर इसे इतना भी समझ में नहीं आता कि पार्टियों को लोकतांत्रिक ढंग से कैसे चलाया जाता है। पार्टी के अंदरूनी लोकतंत्र में उसकी कोई श्रद्धा नहीं है और वह एक ऐसे संगठन से उसे सुधारने के लिए गुहार लगा रहाहै जो खुद लोकतंत्र से कोसों दूर है। आरएसएस के बारे में सब जानते हैं कि उसकी विचारधारा क्या है और वह किस ढंग से काम करता है। उसमें कभी चुनाव नहीं होता और विचार-विमर्श की प्रक्रिया भी कतई लोकतांत्रिक नहीं है। वह एक संप्रदाय विशेष का संगठन है बस।
मगर अरुण शौरी को इससे क्या। वे तो खुद फासीवादी विचारों के पोषक हैं। उनका समूचा साहित्य मुस्लिम-विरोधी है। उनके लेखों और किताबों में देखा जा सकता है कि कैसे वे मुसलमानों और इसलाम को मानवता विरोधी-देश विरोधी साबित करने के लिए कुतर्क गढ़ते रहते हैं। अयोध्या विवाद के दौरान अपनी कलम से ज़हर फैलाने वाले अंग्रेज़ी के पत्रकारों में वे अग्रणी रहे हैं। मथुरा विवाद को हवा देने का काम भी वे अख़बार में करते नज़र आए थे। ये और बात है कि वे ये सब ऐसी नफासत से करते हैं कि नरेंद्र मोदी और उमा भारती जैसे नहीं दिखते। सधी हुई अँग्रेजी में उनकी सांप्रदायिकता काफी हद तक छिप जाती है। अब जबकि पार्टी में उनकी सुनने वाला कोई नहीं है तो वे संघ शरणं गच्छामि हो रहे हैं।
अरूण शौरी किसी ज़माने में पत्रकारों की पाँत में सबसे आगे बैठते थे। बोफोर्स काँड के दौरान भँडाफोड़ करने वालों के अगुआ बने हुए थे। लोगों को भ्रम हो गया था कि उनके जैसा दुस्साहसी और खोजी पत्रकार इस धरती पर कोई दूसरा नहीं है। मगर जानने वाले जानते थे कि ऊपर से पत्रकार का चोला धारण करने वाले अरूण शौरी दरअसल एक स्वयंसेवक है और अंदर निक्कर पहनते है। लेकिन उस समय माहौल राजीव गाँधी के ख़िलाफ़ था इसलिए किसी ने इसे तवज्जो नहीं दी। पोल तब खुली जब वे बाकायदा बीजेपी में शामिल हो गए। राज्यसभा के सदस्य हो गए और फिर वाजपेयी सरकार में मंत्री भी बन गए।
बीजेपी में आने के बाद से अरुण शौरी ज़्यादा संघी हो गए, क्योंकि अब छिपाने के लिेए कुछ नहीं बचा था। मगर लगभग एक दशक तक सक्रिय राजनीति में रहने के बाद भी उन्हें लोकतांत्रिक राजनीति का संस्कार नहीं मिला। वे लोकतांत्रिक पद्धति से चुने गए नेताओं को तानाशाह प्रवृत्ति वाले संघ के ज़रिए हटाना चाहते हैं। बीजेपी या राजनाथ सिंह की कंपनी से किसी की कोई हमदर्दी नहीं है और न ही कोई उन्हें बचाना चाहता है। हम तो एक पाखंडी पत्रकार का चेहरा दिखाना चाहते हैं बस।
अब ज़रा गौर कीजिए पत्रकार से नेता बने अरुण शौरी पर। ये शख्स लोकतांत्रिक होने का दावा करता है और अख़बारों में लंबे-लंबे, कई किस्तों वाले लेख लिखता है। मगर इसे इतना भी समझ में नहीं आता कि पार्टियों को लोकतांत्रिक ढंग से कैसे चलाया जाता है। पार्टी के अंदरूनी लोकतंत्र में उसकी कोई श्रद्धा नहीं है और वह एक ऐसे संगठन से उसे सुधारने के लिए गुहार लगा रहाहै जो खुद लोकतंत्र से कोसों दूर है। आरएसएस के बारे में सब जानते हैं कि उसकी विचारधारा क्या है और वह किस ढंग से काम करता है। उसमें कभी चुनाव नहीं होता और विचार-विमर्श की प्रक्रिया भी कतई लोकतांत्रिक नहीं है। वह एक संप्रदाय विशेष का संगठन है बस।
मगर अरुण शौरी को इससे क्या। वे तो खुद फासीवादी विचारों के पोषक हैं। उनका समूचा साहित्य मुस्लिम-विरोधी है। उनके लेखों और किताबों में देखा जा सकता है कि कैसे वे मुसलमानों और इसलाम को मानवता विरोधी-देश विरोधी साबित करने के लिए कुतर्क गढ़ते रहते हैं। अयोध्या विवाद के दौरान अपनी कलम से ज़हर फैलाने वाले अंग्रेज़ी के पत्रकारों में वे अग्रणी रहे हैं। मथुरा विवाद को हवा देने का काम भी वे अख़बार में करते नज़र आए थे। ये और बात है कि वे ये सब ऐसी नफासत से करते हैं कि नरेंद्र मोदी और उमा भारती जैसे नहीं दिखते। सधी हुई अँग्रेजी में उनकी सांप्रदायिकता काफी हद तक छिप जाती है। अब जबकि पार्टी में उनकी सुनने वाला कोई नहीं है तो वे संघ शरणं गच्छामि हो रहे हैं।
अरूण शौरी किसी ज़माने में पत्रकारों की पाँत में सबसे आगे बैठते थे। बोफोर्स काँड के दौरान भँडाफोड़ करने वालों के अगुआ बने हुए थे। लोगों को भ्रम हो गया था कि उनके जैसा दुस्साहसी और खोजी पत्रकार इस धरती पर कोई दूसरा नहीं है। मगर जानने वाले जानते थे कि ऊपर से पत्रकार का चोला धारण करने वाले अरूण शौरी दरअसल एक स्वयंसेवक है और अंदर निक्कर पहनते है। लेकिन उस समय माहौल राजीव गाँधी के ख़िलाफ़ था इसलिए किसी ने इसे तवज्जो नहीं दी। पोल तब खुली जब वे बाकायदा बीजेपी में शामिल हो गए। राज्यसभा के सदस्य हो गए और फिर वाजपेयी सरकार में मंत्री भी बन गए।
बीजेपी में आने के बाद से अरुण शौरी ज़्यादा संघी हो गए, क्योंकि अब छिपाने के लिेए कुछ नहीं बचा था। मगर लगभग एक दशक तक सक्रिय राजनीति में रहने के बाद भी उन्हें लोकतांत्रिक राजनीति का संस्कार नहीं मिला। वे लोकतांत्रिक पद्धति से चुने गए नेताओं को तानाशाह प्रवृत्ति वाले संघ के ज़रिए हटाना चाहते हैं। बीजेपी या राजनाथ सिंह की कंपनी से किसी की कोई हमदर्दी नहीं है और न ही कोई उन्हें बचाना चाहता है। हम तो एक पाखंडी पत्रकार का चेहरा दिखाना चाहते हैं बस।
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