शनिवार, 26 सितंबर 2009

इस सादगी पर कोई फिदा नहीं होगा


केंद्र सरकार कमखर्ची के नाम पर कर्मकाँड और पाखंड के रास्ते पर चल रही है। वह जो भी क़दम उठा रही है वे सिवाय छलावा के कुछ नहीं है। ये सब जानते हैं कि पहले भी इस तरह के टोटकों से सरकारी खर्च में कोई कमी नहीं आई है और ये ढोंग से ज़्यादा कुछ भी नहीं है। जल्दी ही लोगों को समझ में आने लगेगा कि सरकार की ये सादगी मुहिम दरअसल महँगी साबित होने वाली है। ठीक उसी तरह जैसे कहने को तो नेता खादी पहनते हैं, मगर कपड़ों को चकाचक सफेद और कड़क रखने के लिए आम कपड़ों से ज़्यादा खर्च कर डालते हैं। इसके अलावा इस अभियान के कुछ गुप्त लक्ष्य भी हैं।
ताज़ा मिसाल काँग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी की मुंबई और बैंगलोर यात्रा की ले लीजिए। सोनिया ने सादगी का संदेश देने के लिए हवाई जहाज़ की इकॉनामी क्लास में यात्रा ी जो तुलनात्मक रूप से कुछ सस्ती होती है। मगर उनकी ये यात्रा एक्जीक्यूटिव क्लास की यात्रा से भी महँगी साबित हुई क्योंकि सुविधा और सुरक्षा के लिए आसपास की कई सीटें खाली रखी गईं। बताते हैं कि यात्रियों को इससे सुविधा नहीं हुई, मगर यदि सारे मंत्री और ऐसा करने लगेंगे तो क्या हाल होगा समझा जा सकता है, ख़ास तौर पर उस मौसम में जब भीड़ ज्यादा होती है। बताया गया है कि राहुल गाँधी अब ट्रेन से यात्रा करेंगे। ज़ाहिर है कि उनकी यात्रा के दौरान भी यही होगा। मुमकिन है कि सुरक्षा का हवाला देते हुए पूरा डिब्बा ही रिज़र्व कर दिया जाए।
ये सही है कि मंत्रियों और जन प्रतिनिधियों के यात्रा का खर्च बहुत ज़्यादा होता है। मगर हवाई और रेल यात्राओं के स्तर में कटौती से कमखर्ची का बहुत कम वास्ता है। सरकार अगर सचमुच में खर्च कम करना चाहती तो वह कुछ और कड़े उपाय कर सकती थी। पर उसका उद्देश्य खर्चा कम करना नहीं, बल्कि ये दिखाना है कि वह खर्चे कम कर रही है। ये छवि निर्माण की कवायद है। भीषण सूखे से उपजी स्थिति से निपटने के बजाय वह सादगी की आड़ ढूँढ़ रही है।
इस समय सादगी का राग अलापने की एक बड़ी वजह ये भी है कि काले धन का सवाल भी ज़ोर-शोर से उठ रहा है। विदेशी बैंकों में जमा अकूत काला धन लाने के लिए सरकार किसी भी तरह से तत्पर नहीं दिख रही है। देश के अंदर मौजूद काला धन निकालने की भी कोई मंशा उसकी नज़र नहीं आती। हालाँकि जन-भक्षण(Public consumption) के लिए वीरप्पा मोइली और दूसरे नेता जब-तब बयानबाज़ी करते रहते हैं सरकार का इरादा अगर कुछ करने का होता तो वह इतना शोर न मचाती, वह कार्रवाई करती। मगर शोर मचाकर वह ऐसा माहौल बनाना चाहती है ताकि दूसरे सवाल पृष्ठभूमि में चले जाएं। ये सवाल काले धन के भी हैं और महँगाई, बेरोज़गारी और भुखमरी से जुड़े भी हैं।
सादगी के इस सार्वजनिक प्रदर्शन का उद्देश्य आगामी विधानसभा चुनाव भी हैं। महाराष्ट्र की ग्रामीण जनता राज्य सरकार के कामकाज से बेहद नाराज़ है। ख़ास तौर पर किसानों में उसके प्रति काफी गुस्सा है। इस गुस्से को ठंडा करने के लिए अगर सादगी के छींटे मारे जा रहे हों तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। ज़ाहिर सी बात है कि विधानसभा चुनाव के बाद सादगी की मुहिम ठंडी पड़ जाएगी। सादगी का ज्वार वैसे भी बहुत समय तक चलने वाला नहीं है। हमारे राजनीति संस्कृति के लिए अब ये एक अजनबी और असुविधाजनक चीज़ है और मंत्रिगण इसे मौसमी फ्लू की तरह ही झेल रहे होंगे।

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