सभी ब्लागरों को मेरी तरफ से नये साल की लख-लख बधाई.. आपका नया साल मंगलमय हो और आपके जीवन में खुशियों की बहार लेकर आये..मिलते हैं नये साल में..
गुरुवार, 31 दिसंबर 2009
शनिवार, 26 सितंबर 2009
इस पाखंडी का चेहरा तो देखिए
य़े हैं अरुण शौरी। इन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से माँग की है कि वह भारतीय जनता पार्टी को ठीक करे। उनका कहना है कि पार्टी को वही ठीक कर सकता है। इसके लिए उन्होंने सुझाव ये दिया है कि ऊपर बैठे तमाम लोगों को हटाकर संघ खुद राज्यों से दस नेताओं को भेजे और उन्हें नेतृत्व सौंप दे।
अब ज़रा गौर कीजिए पत्रकार से नेता बने अरुण शौरी पर। ये शख्स लोकतांत्रिक होने का दावा करता है और अख़बारों में लंबे-लंबे, कई किस्तों वाले लेख लिखता है। मगर इसे इतना भी समझ में नहीं आता कि पार्टियों को लोकतांत्रिक ढंग से कैसे चलाया जाता है। पार्टी के अंदरूनी लोकतंत्र में उसकी कोई श्रद्धा नहीं है और वह एक ऐसे संगठन से उसे सुधारने के लिए गुहार लगा रहाहै जो खुद लोकतंत्र से कोसों दूर है। आरएसएस के बारे में सब जानते हैं कि उसकी विचारधारा क्या है और वह किस ढंग से काम करता है। उसमें कभी चुनाव नहीं होता और विचार-विमर्श की प्रक्रिया भी कतई लोकतांत्रिक नहीं है। वह एक संप्रदाय विशेष का संगठन है बस।
मगर अरुण शौरी को इससे क्या। वे तो खुद फासीवादी विचारों के पोषक हैं। उनका समूचा साहित्य मुस्लिम-विरोधी है। उनके लेखों और किताबों में देखा जा सकता है कि कैसे वे मुसलमानों और इसलाम को मानवता विरोधी-देश विरोधी साबित करने के लिए कुतर्क गढ़ते रहते हैं। अयोध्या विवाद के दौरान अपनी कलम से ज़हर फैलाने वाले अंग्रेज़ी के पत्रकारों में वे अग्रणी रहे हैं। मथुरा विवाद को हवा देने का काम भी वे अख़बार में करते नज़र आए थे। ये और बात है कि वे ये सब ऐसी नफासत से करते हैं कि नरेंद्र मोदी और उमा भारती जैसे नहीं दिखते। सधी हुई अँग्रेजी में उनकी सांप्रदायिकता काफी हद तक छिप जाती है। अब जबकि पार्टी में उनकी सुनने वाला कोई नहीं है तो वे संघ शरणं गच्छामि हो रहे हैं।
अरूण शौरी किसी ज़माने में पत्रकारों की पाँत में सबसे आगे बैठते थे। बोफोर्स काँड के दौरान भँडाफोड़ करने वालों के अगुआ बने हुए थे। लोगों को भ्रम हो गया था कि उनके जैसा दुस्साहसी और खोजी पत्रकार इस धरती पर कोई दूसरा नहीं है। मगर जानने वाले जानते थे कि ऊपर से पत्रकार का चोला धारण करने वाले अरूण शौरी दरअसल एक स्वयंसेवक है और अंदर निक्कर पहनते है। लेकिन उस समय माहौल राजीव गाँधी के ख़िलाफ़ था इसलिए किसी ने इसे तवज्जो नहीं दी। पोल तब खुली जब वे बाकायदा बीजेपी में शामिल हो गए। राज्यसभा के सदस्य हो गए और फिर वाजपेयी सरकार में मंत्री भी बन गए।
बीजेपी में आने के बाद से अरुण शौरी ज़्यादा संघी हो गए, क्योंकि अब छिपाने के लिेए कुछ नहीं बचा था। मगर लगभग एक दशक तक सक्रिय राजनीति में रहने के बाद भी उन्हें लोकतांत्रिक राजनीति का संस्कार नहीं मिला। वे लोकतांत्रिक पद्धति से चुने गए नेताओं को तानाशाह प्रवृत्ति वाले संघ के ज़रिए हटाना चाहते हैं। बीजेपी या राजनाथ सिंह की कंपनी से किसी की कोई हमदर्दी नहीं है और न ही कोई उन्हें बचाना चाहता है। हम तो एक पाखंडी पत्रकार का चेहरा दिखाना चाहते हैं बस।
अब ज़रा गौर कीजिए पत्रकार से नेता बने अरुण शौरी पर। ये शख्स लोकतांत्रिक होने का दावा करता है और अख़बारों में लंबे-लंबे, कई किस्तों वाले लेख लिखता है। मगर इसे इतना भी समझ में नहीं आता कि पार्टियों को लोकतांत्रिक ढंग से कैसे चलाया जाता है। पार्टी के अंदरूनी लोकतंत्र में उसकी कोई श्रद्धा नहीं है और वह एक ऐसे संगठन से उसे सुधारने के लिए गुहार लगा रहाहै जो खुद लोकतंत्र से कोसों दूर है। आरएसएस के बारे में सब जानते हैं कि उसकी विचारधारा क्या है और वह किस ढंग से काम करता है। उसमें कभी चुनाव नहीं होता और विचार-विमर्श की प्रक्रिया भी कतई लोकतांत्रिक नहीं है। वह एक संप्रदाय विशेष का संगठन है बस।
मगर अरुण शौरी को इससे क्या। वे तो खुद फासीवादी विचारों के पोषक हैं। उनका समूचा साहित्य मुस्लिम-विरोधी है। उनके लेखों और किताबों में देखा जा सकता है कि कैसे वे मुसलमानों और इसलाम को मानवता विरोधी-देश विरोधी साबित करने के लिए कुतर्क गढ़ते रहते हैं। अयोध्या विवाद के दौरान अपनी कलम से ज़हर फैलाने वाले अंग्रेज़ी के पत्रकारों में वे अग्रणी रहे हैं। मथुरा विवाद को हवा देने का काम भी वे अख़बार में करते नज़र आए थे। ये और बात है कि वे ये सब ऐसी नफासत से करते हैं कि नरेंद्र मोदी और उमा भारती जैसे नहीं दिखते। सधी हुई अँग्रेजी में उनकी सांप्रदायिकता काफी हद तक छिप जाती है। अब जबकि पार्टी में उनकी सुनने वाला कोई नहीं है तो वे संघ शरणं गच्छामि हो रहे हैं।
अरूण शौरी किसी ज़माने में पत्रकारों की पाँत में सबसे आगे बैठते थे। बोफोर्स काँड के दौरान भँडाफोड़ करने वालों के अगुआ बने हुए थे। लोगों को भ्रम हो गया था कि उनके जैसा दुस्साहसी और खोजी पत्रकार इस धरती पर कोई दूसरा नहीं है। मगर जानने वाले जानते थे कि ऊपर से पत्रकार का चोला धारण करने वाले अरूण शौरी दरअसल एक स्वयंसेवक है और अंदर निक्कर पहनते है। लेकिन उस समय माहौल राजीव गाँधी के ख़िलाफ़ था इसलिए किसी ने इसे तवज्जो नहीं दी। पोल तब खुली जब वे बाकायदा बीजेपी में शामिल हो गए। राज्यसभा के सदस्य हो गए और फिर वाजपेयी सरकार में मंत्री भी बन गए।
बीजेपी में आने के बाद से अरुण शौरी ज़्यादा संघी हो गए, क्योंकि अब छिपाने के लिेए कुछ नहीं बचा था। मगर लगभग एक दशक तक सक्रिय राजनीति में रहने के बाद भी उन्हें लोकतांत्रिक राजनीति का संस्कार नहीं मिला। वे लोकतांत्रिक पद्धति से चुने गए नेताओं को तानाशाह प्रवृत्ति वाले संघ के ज़रिए हटाना चाहते हैं। बीजेपी या राजनाथ सिंह की कंपनी से किसी की कोई हमदर्दी नहीं है और न ही कोई उन्हें बचाना चाहता है। हम तो एक पाखंडी पत्रकार का चेहरा दिखाना चाहते हैं बस।
इस सादगी पर कोई फिदा नहीं होगा
केंद्र सरकार कमखर्ची के नाम पर कर्मकाँड और पाखंड के रास्ते पर चल रही है। वह जो भी क़दम उठा रही है वे सिवाय छलावा के कुछ नहीं है। ये सब जानते हैं कि पहले भी इस तरह के टोटकों से सरकारी खर्च में कोई कमी नहीं आई है और ये ढोंग से ज़्यादा कुछ भी नहीं है। जल्दी ही लोगों को समझ में आने लगेगा कि सरकार की ये सादगी मुहिम दरअसल महँगी साबित होने वाली है। ठीक उसी तरह जैसे कहने को तो नेता खादी पहनते हैं, मगर कपड़ों को चकाचक सफेद और कड़क रखने के लिए आम कपड़ों से ज़्यादा खर्च कर डालते हैं। इसके अलावा इस अभियान के कुछ गुप्त लक्ष्य भी हैं।
ताज़ा मिसाल काँग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी की मुंबई और बैंगलोर यात्रा की ले लीजिए। सोनिया ने सादगी का संदेश देने के लिए हवाई जहाज़ की इकॉनामी क्लास में यात्रा ी जो तुलनात्मक रूप से कुछ सस्ती होती है। मगर उनकी ये यात्रा एक्जीक्यूटिव क्लास की यात्रा से भी महँगी साबित हुई क्योंकि सुविधा और सुरक्षा के लिए आसपास की कई सीटें खाली रखी गईं। बताते हैं कि यात्रियों को इससे सुविधा नहीं हुई, मगर यदि सारे मंत्री और ऐसा करने लगेंगे तो क्या हाल होगा समझा जा सकता है, ख़ास तौर पर उस मौसम में जब भीड़ ज्यादा होती है। बताया गया है कि राहुल गाँधी अब ट्रेन से यात्रा करेंगे। ज़ाहिर है कि उनकी यात्रा के दौरान भी यही होगा। मुमकिन है कि सुरक्षा का हवाला देते हुए पूरा डिब्बा ही रिज़र्व कर दिया जाए।
ये सही है कि मंत्रियों और जन प्रतिनिधियों के यात्रा का खर्च बहुत ज़्यादा होता है। मगर हवाई और रेल यात्राओं के स्तर में कटौती से कमखर्ची का बहुत कम वास्ता है। सरकार अगर सचमुच में खर्च कम करना चाहती तो वह कुछ और कड़े उपाय कर सकती थी। पर उसका उद्देश्य खर्चा कम करना नहीं, बल्कि ये दिखाना है कि वह खर्चे कम कर रही है। ये छवि निर्माण की कवायद है। भीषण सूखे से उपजी स्थिति से निपटने के बजाय वह सादगी की आड़ ढूँढ़ रही है।
इस समय सादगी का राग अलापने की एक बड़ी वजह ये भी है कि काले धन का सवाल भी ज़ोर-शोर से उठ रहा है। विदेशी बैंकों में जमा अकूत काला धन लाने के लिए सरकार किसी भी तरह से तत्पर नहीं दिख रही है। देश के अंदर मौजूद काला धन निकालने की भी कोई मंशा उसकी नज़र नहीं आती। हालाँकि जन-भक्षण(Public consumption) के लिए वीरप्पा मोइली और दूसरे नेता जब-तब बयानबाज़ी करते रहते हैं सरकार का इरादा अगर कुछ करने का होता तो वह इतना शोर न मचाती, वह कार्रवाई करती। मगर शोर मचाकर वह ऐसा माहौल बनाना चाहती है ताकि दूसरे सवाल पृष्ठभूमि में चले जाएं। ये सवाल काले धन के भी हैं और महँगाई, बेरोज़गारी और भुखमरी से जुड़े भी हैं।
सादगी के इस सार्वजनिक प्रदर्शन का उद्देश्य आगामी विधानसभा चुनाव भी हैं। महाराष्ट्र की ग्रामीण जनता राज्य सरकार के कामकाज से बेहद नाराज़ है। ख़ास तौर पर किसानों में उसके प्रति काफी गुस्सा है। इस गुस्से को ठंडा करने के लिए अगर सादगी के छींटे मारे जा रहे हों तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। ज़ाहिर सी बात है कि विधानसभा चुनाव के बाद सादगी की मुहिम ठंडी पड़ जाएगी। सादगी का ज्वार वैसे भी बहुत समय तक चलने वाला नहीं है। हमारे राजनीति संस्कृति के लिए अब ये एक अजनबी और असुविधाजनक चीज़ है और मंत्रिगण इसे मौसमी फ्लू की तरह ही झेल रहे होंगे।
ताज़ा मिसाल काँग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी की मुंबई और बैंगलोर यात्रा की ले लीजिए। सोनिया ने सादगी का संदेश देने के लिए हवाई जहाज़ की इकॉनामी क्लास में यात्रा ी जो तुलनात्मक रूप से कुछ सस्ती होती है। मगर उनकी ये यात्रा एक्जीक्यूटिव क्लास की यात्रा से भी महँगी साबित हुई क्योंकि सुविधा और सुरक्षा के लिए आसपास की कई सीटें खाली रखी गईं। बताते हैं कि यात्रियों को इससे सुविधा नहीं हुई, मगर यदि सारे मंत्री और ऐसा करने लगेंगे तो क्या हाल होगा समझा जा सकता है, ख़ास तौर पर उस मौसम में जब भीड़ ज्यादा होती है। बताया गया है कि राहुल गाँधी अब ट्रेन से यात्रा करेंगे। ज़ाहिर है कि उनकी यात्रा के दौरान भी यही होगा। मुमकिन है कि सुरक्षा का हवाला देते हुए पूरा डिब्बा ही रिज़र्व कर दिया जाए।
ये सही है कि मंत्रियों और जन प्रतिनिधियों के यात्रा का खर्च बहुत ज़्यादा होता है। मगर हवाई और रेल यात्राओं के स्तर में कटौती से कमखर्ची का बहुत कम वास्ता है। सरकार अगर सचमुच में खर्च कम करना चाहती तो वह कुछ और कड़े उपाय कर सकती थी। पर उसका उद्देश्य खर्चा कम करना नहीं, बल्कि ये दिखाना है कि वह खर्चे कम कर रही है। ये छवि निर्माण की कवायद है। भीषण सूखे से उपजी स्थिति से निपटने के बजाय वह सादगी की आड़ ढूँढ़ रही है।
इस समय सादगी का राग अलापने की एक बड़ी वजह ये भी है कि काले धन का सवाल भी ज़ोर-शोर से उठ रहा है। विदेशी बैंकों में जमा अकूत काला धन लाने के लिए सरकार किसी भी तरह से तत्पर नहीं दिख रही है। देश के अंदर मौजूद काला धन निकालने की भी कोई मंशा उसकी नज़र नहीं आती। हालाँकि जन-भक्षण(Public consumption) के लिए वीरप्पा मोइली और दूसरे नेता जब-तब बयानबाज़ी करते रहते हैं सरकार का इरादा अगर कुछ करने का होता तो वह इतना शोर न मचाती, वह कार्रवाई करती। मगर शोर मचाकर वह ऐसा माहौल बनाना चाहती है ताकि दूसरे सवाल पृष्ठभूमि में चले जाएं। ये सवाल काले धन के भी हैं और महँगाई, बेरोज़गारी और भुखमरी से जुड़े भी हैं।
सादगी के इस सार्वजनिक प्रदर्शन का उद्देश्य आगामी विधानसभा चुनाव भी हैं। महाराष्ट्र की ग्रामीण जनता राज्य सरकार के कामकाज से बेहद नाराज़ है। ख़ास तौर पर किसानों में उसके प्रति काफी गुस्सा है। इस गुस्से को ठंडा करने के लिए अगर सादगी के छींटे मारे जा रहे हों तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। ज़ाहिर सी बात है कि विधानसभा चुनाव के बाद सादगी की मुहिम ठंडी पड़ जाएगी। सादगी का ज्वार वैसे भी बहुत समय तक चलने वाला नहीं है। हमारे राजनीति संस्कृति के लिए अब ये एक अजनबी और असुविधाजनक चीज़ है और मंत्रिगण इसे मौसमी फ्लू की तरह ही झेल रहे होंगे।
मंगलवार, 15 सितंबर 2009
स्वइन फ्लू
स्वइन फ्लू नाम सुनते हीं हर shaks के चहरे पर खोफ छा जता हैं, क्योकि इस बीमारी का जिस तरह प्रचार प्रसार किया गया उससे तो किसी मल्टी नेशनल कम्पनी को भी सबक लेना चाहिय की सस्ते दाम मैं विज्ञापन केसे किया जाता हे देश के हर बड़े छोटे राजनेता इस मुद्दे को छोड़ना नहीं चाहते थे तभी तो सभी ने बड चड़कर हिस्सा लिया मिशन को पोसिबल बनाने में दोड़ में शामिल हर शक्श आप को संक्रमण से बचने की हिदायते देता रहा तो कोई जाबरदस्ती आप को N-1,H-1 टेस्ट करना की सलहा देता रहा इस गुत्थम गुत्था के माहोल में आम आदमी एक दुसरे आम आदमी को शक की निगाह से देखता रहा और हिदायत के नाम पर दूसरा आम आदमी सब सहता रहा आम आदमी की मन में कई सवाल थे जेसे मेरा बेटा पुणे में हे कही उसे तो ........... अरे उसे यहाँ भी बुलवाया तब भी परेशनी खडी हो सकती हे ........... और ना- जाने ऐसे कई सवाल लिए वो टकटकी लगाय शेलाब के थमने का इंतजार करता रहा विश्व स्वास्थ संगठन ने भी कुछ अहम् कदम उठाय और सिर्फ और सिर्फ अहतियात बरतने के बिगुल बजाए पर भारत ने आपने रव्वये के मुताबिक इसे गंभीरता से लिया और सिर्फ और सिर्फ इसे गंभीर बीमारी का नाम दिया अहतियत से दूर दूर तक कुछ लेना देना नहीं रहा आलम इस कदर मचा की स्वइन फ्लू ने भारत में विकराल रूप ले लिया प्रशासन में भी हड़कंप मच गया और एक के बाद एक जाने जाती रहीस्वइन फ्लू ने मक्सिको से सुरुआत की और बड़ते बड़ते संपूर्ण विश्व को आपने चपेट में ले लिया और आज दिनांक तक भी खोफ बनकर हर एक दिल में बैठा हे बात बीमारी की गंभीरता की नहीं बात खोफ की हे क्या विज्ञानं के इस आधुनिक ज़माने में हम किसी बीमारी या महामारी को इस तरह स्वीकार कर सकते हे ?क्या सारा लोकतंत्र इस बीमारी से निपटने के लिए प्रयसरत था या हमने हमारे प्रयसों में कोई कमी रखी हे हम तो सुरु से ही अंग्रेजो को फालो करते रहे हैं बात सविधान की हो या बात चिकित्सा की हम अंग्रजो के अनुयाई बनाने में आपनी शान समजते रहे हे क्या स्वइन फ्लू ही देश में बीमारी हे और कोई बीमारी नहीं हे ?प्रतिदिन सेकडॉ मरते हे डेंगू ,हजे, मलेरिया, पोलियो से जिसका हमारे पास इलाज हे पर इलाज मरीज की पहुच से बहार हे या मरीज की जानकारी में नहीं हैं सारकार ने इस और क्या कदम उठाय सिर्फ विज्ञापन भर दे देना से और किसी कैम्पेन के नाम से मुहीम चला देना से ये बीमारी नहीं थमेगी ये सारकार भी भालीभाती जानती हे फिर भी जागरूकता अभियान समय समय पर आयोजित कर कर करोडो रूपया फुके जाते हे नतीजे सिर्फ कागज पर दर्शा दिए जाते हैं और अंत की टैग लाइन जागो इंडिया जागो सब को जगा दिया पर सारकार पता नहीं कब जागेगी
सोमवार, 14 सितंबर 2009
करजई पर धांधली का दाग
विष्णुगुप्तअफगानिस्तान में सम्पन्न राष्ट्रपति चुनाव की 92 प्रतिशत मतगणना हो चुकी है। वर्तमान राष्ट्रपति करजई को लगभग 54 प्रतिशत मत मिल चुके हैं। जीत के लिए 50 प्रतिशत से अधिक मतों की संवैधानिक बाध्यता को वे पार कर चुके हैं। इस दृष्टिकोण से उनकी जीत तय है, जबकि उनके प्रतिद्वंद्वी अब्दुल्ला अब्दुल्ला को 28 फीसद मत मिले हैं, लेकिन चुनाव आयोग का कहना है कि चुनाव में धांधली हुई है। नाटो-अमेरिकी नेतृत्व भी मानता है कि धांधली हुई है। जब तक शिकायतों की संपूर्ण जांच नहीं हो जाती, तब तक नतीजों की घोषणा संभवत: रूक सकती है। ये शिकायतें देश के भविष्य के लिए खतरनाक संकेत हैं, क्योंकि इससे हामिद करजई की साख घटेगी और राष्ट्रीय स्तर पर तनाव बढ़ेगा। इसका सीधा लाभ तालिबान को होगा। तालिबान के खात्मे के बाद अमेरिकी-नाटो नेतृत्व में अफगानिस्तान में लोकतंत्र की धारा बही थी। करजई पहले मनोनयन और उसके बाद चुनाव जीत कर राष्ट्रपति बने थे। पिछले चुनावों में करजई और अब्दुल्ला अब्दुल्ला आमने-सामने थे। उस समय भी चुनाव में धांधली की बात उठी थी, लेकिन अफगानिस्तान के भविष्य को देखते हुए और तालिबान के खतरों को भांपकर धांधली को ज्यादा महत्व नहीं दिया गया था। इस उद्देश्य से करजई को चुने हुए राष्ट्रपति का तमगा जरूर मिल गया था। करजई के सामने चुनौतियां बड़ी थी। एक तो उन्हें अशांत समाज में अमन का संदेश देना था और कबीले में बंटी राजनीतिक धारा को शासन-प्रशासन की मुख्यधारा से जोड़ना था। इसके अलावा कानून-व्यवस्था की पूरी तस्वीर खींचने के साथ-साथ हथियारबंद गुटों को निहत्था भी करना था। उन्होंने भरसक कोशिश भी की। कबीलों में बंटे समाज को राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने में उन्हें जरूर सफलता मिली। नव निर्माण के क्षेत्र में भी बड़ी सफलता हासिल की। इसलिए कि अमेरिका और यूरोप के साथ- साथ जापान व भारत जैसे एशियाई देशों ने भी अफगानिस्तान को खुलकर आर्थिक मदद दी, खासकर भारत की आर्थिक मदद उल्लेखनीय रही। भारत ने अफगान संसद सहित मुख्य मार्गो को भी बनाने का दरियादिली दिखाया है। बावजूद इसके करजई वहां अपनी ताकत बढ़ाने में नाकाम रहे। इसलिए कि तालिबान ने फिर से हिंसक शक्ति हासिल कर ली। वहां की आबादी करजई और अमेरिका और नाटो के खिलाफ है। तालिबान हुकूमत के खात्मे के बाद अफगानिस्तान की आबादी में आशा और बेहतरी की उम्मीद बनी थी, क्योंकि तालिबान की मजहबी अंधेरगर्दी के वे अरसे से शिकार रहे। साथ ही, आर्थिक रूप से नाजुक भी हो चुके थे, लेकिन अमेरिकी सैनिकों की उपस्थिति ने आबादी के बीच गुस्सा बढ़ाया है। वजह यह है कि इनकी कार्रवाई बर्बर है। तालिबान को निशाना बनाने के लिए अभियान में ज्यादातर शिकार निर्दोषजन ही हैं। विदेशी सैनिकों ने संयम दिखाया होता और तालिबान के ठिकानों का सटीक अध्ययन किया होता तो उनकी कार्रवाइयां बर्बर नहीं होती। करजई इन सैन्य कार्रवाइयों को रोकने या उनके हमलों को आबादी को बचाने में नाकाम साबित हुए हैं। सत्ता अहंकार भी भर देती है। करजई भी अहंकारी हो गये हैं, इसीलिए सियासी स्तर पर उनकी छवि बिगड़ी और विरोध बढ़ा है। राजनीतिक दलों और उनके नेताओं में बदलाव की धारा चल रही है। वे करजई को सत्ता से हटाना चाहते हैं। अमेरिका अफगानिस्तान में दोहरे संकट में फंस है। उसके सामने एक तरफ करजई की समस्या है, तो दूसरी तरफ तालिबान का बढ़ता खौफ। अमेरिका ने पहले पाक को रियायत देकर आंखें मूंदीं और अब तालिबान की बढ़ती आंच से वह झुलस रहा है। उसे तालिबान को कसने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है। इधर, करजई पर भी उनका भरोसा उठ रहा है। अमेरिका को पता है कि उनकी दागदार होती छवि से जनता में गुस्सा और बढ़ेगा। वहां के नेताओं के बीच हामिद करजई को लेकर तकरार पहले से ही कायम है। अमेरिकी नीति करजई से छुटकारा पाना की है, लेकिन यह काम अमेरिका विवाद से नहीं बल्कि शांतिपूर्ण ढंग से करना चाहता है। अभी हाल ही में हामिद करजई और अमेरिकी शांति दूत के बीच वार्ता हुई थी। बातचीत में राष्ट्रपति चुनावों में धांधली को लेकर दोनों के बीच गतिरोध पैदा हो गया था। अमेरिकी दूत की नसीहतों का परिणाम यह निकला कि आगबबूला होकर हामिद करजई ने अपनी टोपी खुद टेबल पर पटक दी थी। नाटो-अमेरिकी पर्यवेक्षक भी मानते हैं कि चुनाव में धांधली हुई है। यह साफ करने के लिए काफी है कि अमेरिका का विश्वास हामिद करजई पर नहीं रहा। यह तय लगता है कि यदि हाल में संपन्न राष्ट्रपति चुनाव से उत्पन्न गतिरोध और तकरार का मुकम्मल समाधान नहीं हुआ, तो एक बार फिर अफगानिस्तान का भविष्य गहरे अंधेरे में डूब जाएगा। इसके खामियाजा करजई जानते होंगे!
सोमवार, 17 अगस्त 2009
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